Sunday, September 5, 2010

भ्रष्टाचार का वैश्वीकरण

भ्रष्टाचार का वैश्वीकरण  
राजदीप सरदेसाई
लगता है भ्रष्टाचार की तरह अब पाखंड भी हमारे उपमहाद्वीप के लिए एक नासूर बन चुका है। पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी से बेहतर इसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं हो सकती। क्रिकेट के हालिया शर्मसार कर देने वाले प्रकरण के बाद पाकिस्तान में जब लोगों का गुस्सा फूटा तो जरदारी ने भी स्पॉट फिक्सिंग के प्रति नाराजी जताते हुए अपनी अवाम से वायदा कर दिया कि वे खेल से सारी गंदगी बुहार देंगे। जो शख्स पाकिस्तान की समस्याओं का एक हिस्सा है, जब वही मुल्क की समस्याएं सुलझा देने की बात करे तो इससे समझा जा सकता है कि आखिर क्यों हमारा पड़ोसी देश पूरी दुनिया की निगाह में हंसी का पात्र बनता जा रहा है। जरदारी पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के सरपरस्त हैं और भ्रष्टाचार के विभिन्न आरोपों के चलते दस साल जेल में बिता चुके हैं। उन पर इल्जाम है कि उन्होंने सरकारी खातों से 1.5 अरब डॉलर का गबन किया है। यही नहीं, उनके साले मुर्तजा की हत्या के लिए भी उन्हें ही दोषी ठहराया जाता है। क्या वाकई ऐसा कोई शख्स क्रिकेट में भ्रष्टाचार की समस्या का कोई स्थायी समाधान कर सकता है या वह भविष्य के आसिफों और आमिरों के लिए रोल मॉडल बन सकता है?
हाल ही में एक साक्षात्कार में पूर्व पाकिस्तानी कप्तान इमरान खान ने स्पॉट फिक्सिंग को 'नैतिक संकट बताया था। अक्सर इस बात पर अचरज जताया जाता है कि आखिर क्यों पाकिस्तान के बेहतरीन प्रतिभाशाली खिलाड़ी अपनी राह से भटक जाते हैं। इसका जवाब क्रिकेट के मैदान पर नहीं ढूंढ़ा जा सकता। इसका जवाब उस माहौल में छिपा है, जिसमें बेईमानी या 'जुगाड़ को जीने के तरीकों में से एक ही माना जाता है। पाकिस्तान से आ रही खबरों पर गौर करें तो पता चलेगा कि बाढ़ पीडितों के लिए आई सहायता राशि सरकारी हाकिमों और स्थानीय नेताओं की तिजोरियों में समा रही है। शायद इसी से समझा जा सकता है कि आखिर क्यों क्रिकेट मैच में जानबूझकर एकाध नो बॉल फेंकने को सामान्य समझा जाता है।
लेकिन पाकिस्तान के नसीब पर यह स्यापा करने के दौरान हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हम खुद को बहुत पाक-साफ समझने की गलती न करें। स्पॉट फिक्सिंग या मैच फिक्सिंग अकेले पाकिस्तान की समस्या नहीं है। यह जरूर है कि जो क्रिकेटर और उनके 'एजेंट इस मामले में लिप्त पाए गए हैं, वे पाकिस्तानी हैं, लेकिन बहुत संभावना है कि उनके पीछे जो मास्टरमाइंड है, उसके तार भारत से जुड़े हों। कराची और जोहानसबर्ग की तर्ज पर मुंबई भी क्रिकेट के सट्टे का बड़ा गढ़ है। जैसे-जैसे खेल का वैश्वीकरण हो रहा है, वैसे-वैसे भ्रष्टाचार भी वैश्विक हो रहा है। लिहाजा अब देश-दुनिया की सरहदें अप्रासंगिक हो चुकी हैं। सही है कि ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के भ्रष्टाचार सूचकांक में पाकिस्तान 139वीं पायदान पर आता है, लेकिन 84वीं पायदान पर होने के नाते हमें भी तो ईमानदारी के कोई तमगे नहीं मिल रहे हैं।
ये दलीलें भी दी जाती रही हैं कि भारतीय क्रिकेटर आर्थिक रूप से ज्यादा सुरक्षित हैं, इसलिए भारतीय क्रिकेट को भ्रष्टाचार अपनी गिरफ्त में नहीं ले सकता है। यह सच है कि एक औसत भारतीय क्रिकेटर आईपीएल के एक सत्र में ही इतना कमा लेता है, जितना पाकिस्तानी खिलाड़ी एक दशक में कमा पाते होंगे। लेकिन क्या यह दलील काफी है? अगर धन-दौलत से ही ईमानदारी के ग्राफ में बढ़ोतरी होती तो हमारे नेताओं और कॉर्पोरेट जगत के दिग्गजों में से कई भ्रष्टाचार से तौबा कर चुके होते। लेकिन ऐसा है नहीं। हमारे कुछ नेता तो इस बात के लिए सुर्खियां बन जाते हैं कि किस तरह उन्होंने गैरकानूनी तरीके से संसाधनों का दुरुपयोग करते हुए अपनी संपत्ति को दो-दूनी-चार कर लिया।
ऐसा भी नहीं है कि मैच फिक्सिंग के आरोपियों पर पाकिस्तान ने लचीला रुख अपनाया है और भारत ने कहीं कड़ा रुख अख्तियार किया हो। यदि पाकिस्तान के अधिकांश खिलाड़ी मैच फिक्सिंग के आरोपी बरी हो गए, तो भारत में भी यही हुआ। जिस दिन कांग्रेस ने मोहम्मद अजहरुद्दीन को अपना उम्मीदवार बनाया, उसी दिन यह जाहिर हो गया था कि सत्ता के तंत्र ने भारतीय क्रिकेट के सबसे शर्मनाक अध्याय को वैधता प्रदान कर दी है। फिक्सिंग के आरोपी अन्य भारतीय क्रिकेटर भी कोच और कमेंटेटर बन गए। यह संकेत है कि हमारी याददाश्त कितनी कमजोर है। हम कितनी जल्दी दोषियों को बख्श देते हैं।
1990 के दशक के अंत में हमने मैच फिक्सिंग के आरोपों का सामना किया था। यह भारतीय क्रिकेट का सौभाग्य था कि तब उसके पास कुछ ऐसे खिलाड़ी थे, जिनकी ईमानदारी और खेल के प्रति समर्पण उनकी पहचान थी। हम गांगुली, कुंबले, सचिन, द्रविड़ और लक्ष्मण को उनकी विलक्षण क्रिकेट प्रतिभा के कारण ही 'स्वर्णिम पीढ़ी के रूप में जानते हैं, लेकिन हम कभी-कभी भूल जाते हैं कि इन खिलाडिय़ों की अगुआई में ही हमने उस मुश्किल दौर में भी अपने आत्मसम्मान को बनाए रखा था। लेकिन अहम सवाल यह है कि इन खिलाडिय़ों के बाद क्या उनकी जगह लेने वाले युवा भी खेल के प्रति इतने ही प्रतिबद्ध हैं? महज 21 वर्ष की उम्र में लाखों रुपए कमाने वाले नौजवान खिलाड़ी क्या इस चकाचौंध में गुम होने से खुद को बचा पाएंगे?
आखिरकार नैतिकता जन्मजात तो नहीं होती। इसे हम अपने भीतर विकसित करते हैं। इस प्रक्रिया में सम्मानीय दर्जा प्राप्त सशक्त नेतृत्व भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अगर कॉमनवेल्थ खेल अपनी चमक खो चुके हैं तो इसकी वजह यह है कि उसके आयोजक अपनी टीम को नैतिक दिशा नहीं दे सके। इसके उलट सरकार का ही एक और बड़ा उद्यम दिल्ली मेट्रो अनैतिकता से मुक्त इसलिए है, क्योंकि उसके अध्यक्ष एक ऐसे व्यक्ति हैं, जो भ्रष्टाचार को तनिक भी बर्दाश्त नहीं करते हैं। जब इमरान खान पाकिस्तान क्रिकेट टीम के कप्तान थे, तब टीम पर कभी भी फिक्सिंग के आरोप नहीं लगे।
नेतृत्व क्षमता के महत्व पर इमरान एक दिलचस्प वाकया सुनाते हैं। शारजाह में वर्ष 1989 के ऑस्ट्रेलेशिया कप फाइनल में उन्हें पता चला कि उनके चार खिलाड़ी मैच फिक्स करने के लिए राजी हो गए हैं। इमरान ने टीम मीटिंग बुलाई और खिलाडिय़ों को साफ शब्दों में चेताया कि यदि उन्होंने खेल में किसी तरह की कोताही बरती तो न केवल वे हमेशा के लिए पाकिस्तान की ओर से क्रिकेट खेलने से महरूम हो जाएंगे, बल्कि उन्हें जेल भी भेजा जा सकता है। इसके बाद बाजी पलट गई। इमरान कहते हैं उस दिन हम जितनी आसानी से मैच जीते, मुझे नहीं लगता किसी और दिन हम ऐसा कर पाते!
पुनश्च : मियां जरदारी की ही तरह पाकिस्तान के महान बल्लेबाज जावेद मियांदाद ने भी संकट की इस घड़ी में अपने मुल्क के क्रिकेट की मदद की पेशकश की है। आपको याद दिलाना चाहता हूं कि मियांदाद के बेटे की 'अरेंज्ड मैरिज माफिया डॉन दाऊद इब्राहिम की बेटी से हुई है। गुड लक पाकिस्तान!
लेखक सीएनएन 18 नेटवर्क के एडिटर-इन-चीफ हैं।

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