डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अगर ओबामा की जगह बुश होते तो अमेरिका के लिए कहा जाता कि ‘बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले’ | एराक से निकलना कोरिया और वियतनाम से भी बदतर ही रहा, हालांकि वहां बहुत ज्यादा अमेरिकी मारे गए थे| एराक में बुश क्यों घुसे थे, यह आज तक स्पष्ट नहीं हो पाया| क्या एक भी सर्वनाशकारी हथियार एराक़ में आज तक मिल पाया ? इन्हीं हथियारों का बहाना बनाकर बुश घुसे थे| अमेरिका ने अपने पांच हजार जवान मरवा दिए, लगभग पांच लाख करोड़ रू. नाली में बहा दिये, डेढ़ लाख एराकी मर गए, एराकी समाज छिन्न-भिन्न हो गया, इसके बावजूद लाखों अमेरिकी सैनिक एराक में अपनी उपस्थिति का औचित्य नहीं ठहरा पाए| बुश की सबसे बड़ी उपलब्धि यही रही कि उन्होंने सपाम हुसैन को अपदस्थ किया और उनकी हत्या कर दी| बुश इसे अपनी बहादुरी समझते रहे लेकिन सारी दुनिया में इस घटना ने उनकी मूर्खता का सिक्का जमा दिया| एराक़ को लेकर अमेरिका के विरूद्घ जितने प्रदर्शन दुनिया में हुए, आज तक किसी भी राष्ट्र के विरूद्घ नहीं हुए| कोरिया और वियतनाम में घुसने का औचित्य सिद्घ करने के लिए कुछ तर्क अभी भी अमेरिका देता रहता है लेकिन एराक़ में घुसने को वह कभी भी उचित सिद्घ नहीं कर पाएगा| गनीमत है कि बुश अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति हैं| यदि वे किसी अफ्रीकी या पूर्वी यूरोपीय देश के नेता होते तो उनके सद्दामीकरण की मांग भी उठती| ऐसे में ओबामा द्वारा की गई अमेरिकी वापसी पर दुनिया संतोष की सांस ले रही है| लेकिन वह यह भी पूछ रही है कि ये वापसी भी क्या वापसी है ?
ओबामा ने उनकी वापसी की घोषणा तो कर दी है लेकिन क्या सचमुच हमें इसे वापसी कह सकते हैं ? अब भी लगभग 50 हजार अमेरिकी जवान एराक़ में डटे हुए हैं| कहा जा रहा है कि उन्हें दिसंबर 2011 तक वापस बुलाया जा सकता है| इस बारे में पक्की बात कोई नहीं बोल रहा है| न ओबामा, न हिलेरी और न ही गेट्रस ! सबको पता है कि अमेरिका जिस हाल में एराक़ को छोड़कर जा रहा है, वह 1947 के भारत से भी बदतर है| शिया, सुन्नी और कुर्द तो आपस में भिड़ते ही रहते हैं, अमेरिका-विरोधी लहर अभी भी थमी नहीं है| इस समय एराक में अमेरिकी दूतावास और उसकी शाखाओं तथा दर्जनों सैन्य अड्डों की रखवाली करने के लिए हजारों सैनिकों की जरूरत है| यह नाजुक काम एराक़ी जवानों को नहीं सौंपा जा सकता, क्योंकि औसत एराकि़यों के मन में अमेरिका के प्रति कृतज्ञता का कोई भाव नहीं है, उनके दिल में भी नहीं, जिन्हें अमेरिकी कब्जे से सीधा राजनीतिक या वित्तीय लाभ भी मिला है| पेंटगॉन ने हाल ही में घोषणा की है कि वह एराक़ में अतिरिक्त हेलिकॉप्टर और अन्य सैन्य साजो-सामान भिजवानेवाला है| इसमें शक नहीं है कि पिछले सात साल में एराक़ में जितनी हिंसा अक्सर होती रही है, उसके मुकाबले अब हालात बेहतर हैं लेकिन अब भी लगभग एक लाख सुरक्षा-ठेकेदार और हजारों गैर-सरकारी विदेशी जवान एराक़ में सकि्रय हैं| पिछले सात वर्षों में अनेक अमेरिकी कंपनियों ने एराक़ में अपना जो लंबा-चौड़ा जाल बिछाया है, उसे एराक़ी जवानों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता| यदि एराक़ में अमेरिकी ‘ऑपरेशन फ्रीडम’ सफल हुआ होता तो क्या ऐसी नौबत आती ?
एराक़ को अगर अमेरिका सेंत-मेत में खाली कर दे तो सचमुच दुनिया को बहुत आश्चर्य होगा| बुश की नासमझी के कारण जो अरबों डॉलर वहां बर्बाद हुए, उन्हें निकालने की कोशिश अमेरिका जरूर करेगा| वह एराक़ी तेल पर तो कब्जा करेगा ही, वह यह भी चाहेगा कि चीन जैस राष्ट्र एराक़ी तेल का फायदा न उठा सकें| अमेरिका की हरचंद कोशिश होगी कि बगदाद की गद्दी पर जो भी बैठे, वह आगामी कुछ वर्षों तक उसकी कठपुतली बना रहे| उसकी यह इच्छा तभी पूरी हो सकती है, जबकि वह एराक़ में अपनी फौजी और राजनीतिक उपस्थिति बनाए रखे| एराकी सेनापति बबरक-ज़ावरी ने तो दो-टूक शब्दों में कहा है कि अमेरिकी फौजों को एराक़ में कम से कम अगले दस साल तक अवश्य जमे रहना चाहिए| उन्हें तभी लौटना चाहिए जबकि एराकी फौजें अपने पांव पर खड़ी हो जाएं| एराक़ में अमेरिकी उपस्थिति इसलिए भी जरूरी है कि वहां रहकर उसे ईरान को तंग करने में आसानी होगी हालांकि एराक़ के शिया और वहां रहनेवाले ईरानी अमेरिका की नाक में दम करते रहेंगे| ओबामा द्वारा वापसी की घोषणा के बावजूद अमेरिका का एराक़ से पिंड छूटनेवाला नहीं है|
यह ठीक है कि सपाम के ज़माने में एराक़ को माहौल तानाशाही था लेकिन आज क्या हाल है ? मार्च 2010 में चुनाव जरूर हुए हैं लेकिन पूरी एराकी राजनीति में सांप्रदायिकता का जहर घुल गया है| 325 सदस्यों की संसद में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला है| शिया-पार्टी के नेता नूरी अल मलिकी को 89 सीटें मिली हैं तो सुन्नी पार्टी के नेता अयाद अल्लवी को 91 | दोनों नेता राष्ट्रवादी हैं, दोनों शक्तिशाली केंद्र के पक्षधर हैं, दोनों सुयोग्य हैं लेकिन दोनों एक दूसरे को फूंटी आंख नहीं सुहाते| छह माह हो गए, अभी तक बगदाद में नई सरकार का गठन नहीं हुआ है| एराक़ का हाल नेपाल से भी बुरा है| अन्य छोटी-मोटी पार्टियों और गुटों के साथ जोड़-तोड़ चल रही है लेकिन सारा अमेरिकी जुगाड़ फेल हो रहा है| कुशासन, भ्रष्टाचार, अभाव और बेकारी से त्र्स्त एराक़ से अमेरिकी की वापसी किसी के लिए गर्व का विषय नहीं है| अमेरिका सचमुच वापिस हो जाए तो भी नए एराक़ का संविधान कुछ इस तरह का बनवाया गया है कि वहां बगदाद की केंद्र सरकार ठीक से चल ही नहीं पाएगी| एराक़ी लोग सद्दाम को याद करने पर मजबूर होंगे| वास्तव में विश्व राजनीति में यह अमेरिका की गिरती हुई छवि को लगनेवाला नया धक्का है| एराक़ से हो रही वापसी अफगानिस्तान के लिए भी शुभ-संकेत नहीं है| यदि अमेरिका अफगानिस्तान से अगले साल लौटेगा तो वह एराक़ से भी बदतर हालात में उसे छोड़ेगा| अकेले अफगानिस्तान ने सोवियत संघ का विश्व-शक्ति का दर्जा खत्म कर दिया| अब अफगानिस्तान और एराक़ दोनों मिलकर अमेरिका का विश्व की महत्तम शक्ति का दर्जा खत्म कर रहे हैं| बुश की मूर्खताओं का सुपरिणाम यह है कि अब विश्व-राजनीति एकधु्रवीय की बजाय बहुध्रुवीय बनती जा रही है| चीन, भारत, यूरोप और आग्नेय एशिया नए शक्ति-केंद्रों की तरह उभर रहे हैं|
- लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।
ओबामा ने उनकी वापसी की घोषणा तो कर दी है लेकिन क्या सचमुच हमें इसे वापसी कह सकते हैं ? अब भी लगभग 50 हजार अमेरिकी जवान एराक़ में डटे हुए हैं| कहा जा रहा है कि उन्हें दिसंबर 2011 तक वापस बुलाया जा सकता है| इस बारे में पक्की बात कोई नहीं बोल रहा है| न ओबामा, न हिलेरी और न ही गेट्रस ! सबको पता है कि अमेरिका जिस हाल में एराक़ को छोड़कर जा रहा है, वह 1947 के भारत से भी बदतर है| शिया, सुन्नी और कुर्द तो आपस में भिड़ते ही रहते हैं, अमेरिका-विरोधी लहर अभी भी थमी नहीं है| इस समय एराक में अमेरिकी दूतावास और उसकी शाखाओं तथा दर्जनों सैन्य अड्डों की रखवाली करने के लिए हजारों सैनिकों की जरूरत है| यह नाजुक काम एराक़ी जवानों को नहीं सौंपा जा सकता, क्योंकि औसत एराकि़यों के मन में अमेरिका के प्रति कृतज्ञता का कोई भाव नहीं है, उनके दिल में भी नहीं, जिन्हें अमेरिकी कब्जे से सीधा राजनीतिक या वित्तीय लाभ भी मिला है| पेंटगॉन ने हाल ही में घोषणा की है कि वह एराक़ में अतिरिक्त हेलिकॉप्टर और अन्य सैन्य साजो-सामान भिजवानेवाला है| इसमें शक नहीं है कि पिछले सात साल में एराक़ में जितनी हिंसा अक्सर होती रही है, उसके मुकाबले अब हालात बेहतर हैं लेकिन अब भी लगभग एक लाख सुरक्षा-ठेकेदार और हजारों गैर-सरकारी विदेशी जवान एराक़ में सकि्रय हैं| पिछले सात वर्षों में अनेक अमेरिकी कंपनियों ने एराक़ में अपना जो लंबा-चौड़ा जाल बिछाया है, उसे एराक़ी जवानों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता| यदि एराक़ में अमेरिकी ‘ऑपरेशन फ्रीडम’ सफल हुआ होता तो क्या ऐसी नौबत आती ?
एराक़ को अगर अमेरिका सेंत-मेत में खाली कर दे तो सचमुच दुनिया को बहुत आश्चर्य होगा| बुश की नासमझी के कारण जो अरबों डॉलर वहां बर्बाद हुए, उन्हें निकालने की कोशिश अमेरिका जरूर करेगा| वह एराक़ी तेल पर तो कब्जा करेगा ही, वह यह भी चाहेगा कि चीन जैस राष्ट्र एराक़ी तेल का फायदा न उठा सकें| अमेरिका की हरचंद कोशिश होगी कि बगदाद की गद्दी पर जो भी बैठे, वह आगामी कुछ वर्षों तक उसकी कठपुतली बना रहे| उसकी यह इच्छा तभी पूरी हो सकती है, जबकि वह एराक़ में अपनी फौजी और राजनीतिक उपस्थिति बनाए रखे| एराकी सेनापति बबरक-ज़ावरी ने तो दो-टूक शब्दों में कहा है कि अमेरिकी फौजों को एराक़ में कम से कम अगले दस साल तक अवश्य जमे रहना चाहिए| उन्हें तभी लौटना चाहिए जबकि एराकी फौजें अपने पांव पर खड़ी हो जाएं| एराक़ में अमेरिकी उपस्थिति इसलिए भी जरूरी है कि वहां रहकर उसे ईरान को तंग करने में आसानी होगी हालांकि एराक़ के शिया और वहां रहनेवाले ईरानी अमेरिका की नाक में दम करते रहेंगे| ओबामा द्वारा वापसी की घोषणा के बावजूद अमेरिका का एराक़ से पिंड छूटनेवाला नहीं है|
यह ठीक है कि सपाम के ज़माने में एराक़ को माहौल तानाशाही था लेकिन आज क्या हाल है ? मार्च 2010 में चुनाव जरूर हुए हैं लेकिन पूरी एराकी राजनीति में सांप्रदायिकता का जहर घुल गया है| 325 सदस्यों की संसद में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला है| शिया-पार्टी के नेता नूरी अल मलिकी को 89 सीटें मिली हैं तो सुन्नी पार्टी के नेता अयाद अल्लवी को 91 | दोनों नेता राष्ट्रवादी हैं, दोनों शक्तिशाली केंद्र के पक्षधर हैं, दोनों सुयोग्य हैं लेकिन दोनों एक दूसरे को फूंटी आंख नहीं सुहाते| छह माह हो गए, अभी तक बगदाद में नई सरकार का गठन नहीं हुआ है| एराक़ का हाल नेपाल से भी बुरा है| अन्य छोटी-मोटी पार्टियों और गुटों के साथ जोड़-तोड़ चल रही है लेकिन सारा अमेरिकी जुगाड़ फेल हो रहा है| कुशासन, भ्रष्टाचार, अभाव और बेकारी से त्र्स्त एराक़ से अमेरिकी की वापसी किसी के लिए गर्व का विषय नहीं है| अमेरिका सचमुच वापिस हो जाए तो भी नए एराक़ का संविधान कुछ इस तरह का बनवाया गया है कि वहां बगदाद की केंद्र सरकार ठीक से चल ही नहीं पाएगी| एराक़ी लोग सद्दाम को याद करने पर मजबूर होंगे| वास्तव में विश्व राजनीति में यह अमेरिका की गिरती हुई छवि को लगनेवाला नया धक्का है| एराक़ से हो रही वापसी अफगानिस्तान के लिए भी शुभ-संकेत नहीं है| यदि अमेरिका अफगानिस्तान से अगले साल लौटेगा तो वह एराक़ से भी बदतर हालात में उसे छोड़ेगा| अकेले अफगानिस्तान ने सोवियत संघ का विश्व-शक्ति का दर्जा खत्म कर दिया| अब अफगानिस्तान और एराक़ दोनों मिलकर अमेरिका का विश्व की महत्तम शक्ति का दर्जा खत्म कर रहे हैं| बुश की मूर्खताओं का सुपरिणाम यह है कि अब विश्व-राजनीति एकधु्रवीय की बजाय बहुध्रुवीय बनती जा रही है| चीन, भारत, यूरोप और आग्नेय एशिया नए शक्ति-केंद्रों की तरह उभर रहे हैं|
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