Sunday, September 5, 2010

अपने में सिमटे मतदाता

अपने में सिमटे मतदाता
मृणाल पांडे
मा नसून सत्र के दौरान देशव्यापी महंगाई तथा राष्ट्रकुल खेलों में घोटालेबाजी पर उत्तेजक बहसों के बीच हमने अपना स्वतंत्रता दिवस मनाया था। लालकिले पर झंडा फहरने तथा राष्ट्रगीत गाए जा चुकने के तुरंत बाद लालू यादव व मुलायम सिंह की अगुआई में सांसदों ने अपना वेतन बढ़वाने की पुरजोर मांग फिर बुलंद की और लोकसभा में सांसदों का वेतन तिगुना बनाने वाला एक बिल आराम से पास भी हो गया। चुनाव पूर्व खुद ही दी गई जानकारी के अनुसार जिस सदन के 58 सदस्य करोड़पति ठहरते हों, वहां सिवा अंबिका सोनी तथा वायलार रवि के, किसी ने भी खुलकर इस तिगुनी तनख्वाह को अनावश्यक बताने की जहमत नहीं उठाई। बढ़ती कीमतों पर सरकार को कठघरे में खड़ा करने वाले विपक्ष ने भी नहीं माना कि कमरतोड़ महंगाई से जनता को राहत दिलाने से पहले जनता के नुमाइंदों द्वारा खुद अपने लिए कई गुना वेतनवृद्धि का यह प्रस्ताव न तो शालीन मालूम होता है और न ही यह समय-संगत और उचित है। गरीबों, शोषितों, पिछड़ों के स्वघोषित मसीहा भी इस अवसर पर यह भूल गए कि कभी खुद उनके गुरु राममनोहर लोहिया को आजादी के बाद गरीब मतदाताबहुल देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री का वेतन (25000 रुपए प्रतिमाह) भी असहनीय रूप से अधिक प्रतीत हुआ था और उन्होंने लोकसभा में उसमें कटौती की मांग कर दी थी।
बहरहाल वेतन बढ़ गया। सांसदगण संतुष्ट हो गए। मतदातागण खामोश हैं। हालांकि कुछ पुराने लोगों ने याद दिलाते हुए बताया कि भई राजनीति में तो अपना तथा दल का हित ही पहले रखा जाता है। याद नहीं, पचास बरस पहले केंद्रीय खुफिया एजेंसी की एक रपट ने जब उड़ीसा में पटनायक-मित्रा गुट द्वारा सत्ता का लाभ उठाते हुए कई अनियमितताएं करने की बात उजागर कर काफी बावेला खड़ा कर दिया था, तो उसके बावजूद तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष कामराज ने बीजू पटनायक से पत्र लिखकर आग्रह किया था कि वे भुवनेश्वर जाकर पार्टी का चुनावी कामकाज संभालें और मुख्यमंत्री सदाशिव त्रिपाठी को आराम करने को कहें। समरथ को नहिं दोष गुसाईं।
जनप्रतिनिधियों की दुनिया को लोकतंत्र में आम मतदाता के जीवन से अलग करते जाने का नतीजा है कि आज जब झारखंड के दो पूर्व मुख्यमंत्री तथा अरुणाचल के पूर्व मुख्यमंत्री जनता की मेहनत की कमाई के पैसों में भारी हेराफेरी के आरोप में गिरफ्तार कर लिए जाते हैं, तो न किसी को अचरज होता है न धक्का लगता है। मानो यह बिल्कुल मामूली सी बात हो कि आदिवासीबहुल, महत्वपूर्ण वन तथा खनिज संपदा वाले, नक्सली हिंसा से पीडित और संवेदनशील सीमाओं से सटे सूबों के बड़े नेता घपले में दोषी साबित होकर जेल भेजे जाएं। मतदाताओं की यह उदासीनता लोकतंत्र तथा अर्थतंत्र, दोनों को बहुत भारी पड़ सकती है। अपनी दुनिया में सिमटता हमारा मीडिया अलबत्ता कह रहा है कि मतदाता चिंतित हैं। केंद्रीय खुफिया एजेंसियों, कैग, सतर्कता आयोग द्वारा नामित दोषियों को कभी दुनिया के आगे देश की छवि बचाने और कभी मध्यावधि में सरकार के गिरने के भय का हवाला देकर बख्शा जा रहा है। घोटालों की मूसलाधार बौछार के बीच सत्ता के गोवर्धन पर्वत को जैसे-तैसे टिकाए रखने वाली उंगली डगमग हो रही है, पर क्या करें विपक्ष में भी मतदाता को दम नहीं दिख रहा। पहाड़ की ओट से देश विकल्प खोजने बाहर निकला तो सिर के ऊपर रही-सही छत चली जाएगी, पर यदि भीतर रहा तो देर-सबेर कहीं ऐसा न हो जाए कि पर्वत का पूरा मलबा ही सिर पर गिर पड़े।
कभी देश की लोकसभा में आचार्य कृपलानी ने सत्तारूढ़ सरकार के खिलाफ विपक्ष द्वारा निंदा प्रस्ताव लाने पर कटाक्ष करते हुए कहा था कि अपने ही वजन से धंस रही सरकार उनको निंदा नहीं, दया प्रस्ताव के लायक दिखाई देती है। आज ऐसी करुण दशा हर दल की हो चुकी है। हां, देश को विकास के लिए किसी नए ब्लू प्रिंट और एक नए, साफ-सुथरे नेतृत्व की जरूरत है। पर हर दल में युवाओं की मौजूदगी के बाद भी सत्ता की फुनगियों पर वही पुराने नेता पके फलों की तरह क्यों लटक रहे हैं? पुराने को झड़ाकर नए को पनपने का मौका दे, ऐसी कोई बड़ी आंधी न तो राजनीति के भीतर बन रही है, न ही बाहर किसी चमत्कारी अवतरण का चुपचाप इंतजार करती जनता के बीच। क्या यह निरीह भारतीय मतदाता भी दया के प्रस्ताव के योग्य नजर नहीं आता?
कुछ लोगों को छात्रों या किसानों या आदिवासियों के द्वारा छेड़े गए ताजा स्थानीय आंदोलनों में बदलाव की संभावना नजर आती है। पर हम देखते हैं कि उनके आंदोलन अक्सर स्थानीय किस्म के मसलों पर ही केंद्रित रहते हैं। उनके आंदोलनों के पीछे अमूमन कोई बड़े राष्ट्र स्तरीय मुद्दे नहीं होते। निजी महत्वाकांक्षा से या चुनाव पास जानकर आगे आए नेताओं के तत्वावधान में किसी बस के छात्र को टक्कर मार देने, कैंटीन की असुविधा या परीक्षा की टाइमिंग या अधिक जमीनी मुआवजे या जातीय कोटा पाने को हुए हालिया आंदोलनों के पीछे सीमित तात्कालिक कारण थे। अग्निगर्भा बयानबाजी और धरनों के बाद अक्सर सीमित से मुद्दों को प्रामाणिकता दिलाकर और कुछ तबादले-बर्खास्तगियां इत्यादि करवाकर यह आंदोलन व उनकी अगुआई करने वाले नेता कहीं गायब हो जाते हैं या नगर निकायों, विधानसभा के चुनावी टिकट पाकर व्यवस्था की नाव पर सवारी करने लगते हैं। कुछ लोगबाग कहेंगे कि भाई बुद्ध व गांधी के देश में हम लोग इतनी जल्द उत्तेजित नहीं होते। सवाल उठता है कि सड़क पर वाहन में तनिक सी खरोंच लगने पर लोहे के सरिए से अगले को पीट देने वालों, दाल में नमक कम होने पर बीवी की धुनाई करने वालों तथा होमवर्क न करने पर छोटी उम्र के छात्रों की आंख, कान फोड़ देने वालों के इस देश में आम नागरिक को कभी-कभार ही सही, अपने चुने प्रतिनिधियों और सार्वजनिक अमानत में भीषण खयानत करने वालों पर कठोर कार्रवाई के लिए कोंचने लायक सामूहिक गुस्सा क्यों नहीं आता? क्या हमारा गुस्सा सिर्फ निजी संपत्ति से छेड़छाड़ या अपनी जाति, समुदाय के किसी युवा पर अत्याचार होने पर ही उभरता है और मोमबत्ती वाले शांतिमार्च के साथ विलीन भी हो जाता है? अगर राजनीतिक प्रतिशोध के आरोप से बचने या देश की इज्जत पर चादर डाले रखने या चुनावी रणनीति के नाम पर लगभग हर अपराधी के प्रति नरमी बरती जाने लगी तो फिर तो न्याय व्यवस्था रचने का उद्देश्य ही पराजित हो जाएगा। कुल मिलाकर लोकतंत्र में मतदाता की बढ़ती आत्मकेंद्रित उदासीनता से, कोऊ नृप होय
हमें ही हानि है। (लेखिका जानी-मानी साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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